पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१३२

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प्रकृति की सुखमा लखते मुदा । सुख समूह जुरे रहते सदा ।। विमल तारन को लखि ज्योति यो। तम विभास कहो अब होत क्यो ? ॥ कुसुम के लखि मञ्जु विकाश को। भ्रमर गूजत है लहि आश को।। हृदय अस्फुट गूजत क्यो कभी? लखत फूल सुकौन कही अभी ॥ घन तमावृत शून्य आकाश सो। हिय भयो यह हाय निराश सो॥ तबहुँ रश्मि लवात विभा भरी। ध्रुव समान सुकौन प्रभाधरी ? चियावार Met