पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१३१

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विस्मृत प्रेम अभिनवेन्दु कला दरसाति है। सुखभरी विमला अधराति है॥ सब लखात वहै छबि पूर है। तदपि क्यो हिय है चकचूर ह्वे ॥ सबहिं विस्मत सिन्धु तरग मे । प्रणय की लिपि धोइ उमग म॥ यदपि उज्ज्वल चित्त कियो नि । तदपि क्यो नहिं राग अजी तजै॥ हिय क्ही तुममे कहें बानि है। नहिं बिसारत जो निज आनि है । सुमेहदी जिमि ऊपर है हगे। अरणिमा तउ भीतर है भरी ॥ शुचि समीरन सौरभ पूर को । परसि चेतत कौन सुदूर को॥ कमल कानन के मकरन्द को। विमल आनन पूरन चन्द को ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥६८॥