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पीत-पटी कटि माहि रग सावरो निहारो। सवही भाति नन्दनन्दन को ही अनुकारो॥ करत फिरत मधुपान कुसुम नित नित प्रचीन सा । मधुकर । यह मञ्जरी अहै समुदित नवीन सो॥ बिनवौं तुमसो नेक कृपा करिकै सुनि लीजे । ममुझि सिखावन भलो चित्त मे ठाव सुदीजे ॥ चचलता तजि देहु अजू अपनी विचारि के। मजु मजरी पाइ भार दोजे सम्हारि के॥ प्रसाद पागमय ॥४६॥