परम्परागत शिक्षा---यह रस्मी तालीम---बहुत जल्द शुरू कर दी जाती है और जिन नियमों के अनुसार मन की शक्तियाँ बढ़ती जाती हैं उनकी कुछ भी परवा न करके यह जारी रखी जाती है। मानसिक शक्तियों में तो उन्नति होती जाती है; पर इस शिक्षा प्रणाली में उन्नति नहीं होती। वह जैसी की तैसी जारी रहती है। मूर्त-विषयों का ज्ञान पहले होना चाहिए, अमूर्त-विषयों का पीछे। जो चीज़े आँखों के सामने रहती हैं उनसे सम्बन्ध रखने वाली शिक्षा हो चुकने पर, उन चीजों की शिक्षा होनी चाहिए जो आँखों के सामने नहीं रहतीं। दृश्य विषयों की शिक्षा के बाद अदृश्य विषयों की शिक्षा देना मुनासिब है। ज्ञान प्राप्ति में इसी क्रम से काम लेना चाहिए और सीधी सादी बातों की शिक्षा से शुरू करके कठिन बातों की शिक्षा तक पहुँचना चाहिए। परन्तु इस नियम की ज़रा भी परवा नहीं की जाती और अमूर्त और अत्यन्त कठिन विषयों की शिक्षा, उदाहरण के लिए व्याकरण की, जो बहुत पीछे शुरू होनी चाहिए, बिलकुल बचपन ही में शुरू कर दी जाती है। इसी तरह, लड़कों को बचपन ही में, भूगोल-विद्या जिस क्रम से सिखलाई जाती है वह क्रम भी ठीक नहीं। राजकीय व्यवस्था के अनुसार जुदा-जुदा देशों और खण्डों के जो विभाग होते हैं उन के नाम और उन से सम्बन्ध रखने वाली शुष्क बातें बचपन
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प्रबन्ध-पुष्पाञ्जलि