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प्रबन्ध-पुष्पाञ्जलि

से बच्चों को खयाल करना और ख़यालात को इकट्ठा करके उन्हें याद रखना सिखलाया जाता है उस तरीक़े का पूरा पूरा ज्ञान हुए बिना ये काम अच्छी तरह नहीं हो सकते। बिना इस ज्ञान के शिक्षा को सम्भव समझना निरा पागलपन है। पर, आजकल, दो ही चार शिक्षक ऐसे होंगे जो मनोविज्ञान का कुछ भी ज्ञान रखते होंगे। और माँ बाप की तो बात ही न पूछिए। उनमें तो शायद ही किसी की पहचान इस शास्त्र से होगी। जिस शास्त्र में मन के गुण-धर्म और उसकी शक्तियों का विचार किया गया है उसी की जब यह दशा है तब कैसे सम्भव है कि मानसिक नियमों का ख़याल रख कर बच्चों को शिक्षा दी जा सके। अतएव जैसी शिक्षा बच्चों को मिलनी चाहिए, और जैसी मिल रही है, उसमें आकाश पाताल का अन्तर है। शिक्षा की जो प्रणाली इस समय प्रचलित है वह बहुत ही दूषित और बहुत ही शोचनीय है; और होनी ही चाहिए; क्यों कि सब सामान ही वैसा है। यही नहीं कि जो शिक्षा दी जाती है वही दूषित है; नहीं, जिस तरीके से वह दी जाती है वह तरीक़ा भी दूषित है। जिन बातों की शिक्षा दी जानी चाहिए उनकी तो दी नहीं जाती; दी जाती है व्यर्थ, अनुपयोगी और अनुचित बातों की। फिर जो उटपटाँग की बातें लड़कों के दिमाग में जबरदस्ती भरी जाती हैं वे ठीक क्रम से भी नहीं भरी जाती। न शिक्षा ही ठीक है; न क्रम ही