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प्रबन्ध-पुष्पाञ्जलि

थोड़े ही साल हुए कि वह मदरसे में पढ़ती थी। वहाँ उसके दिमाग में हजारों शब्द, नाम और तारीखें कूट कूट कर भरी गई थीं। दिन रात उसने उन्हें रट रट कर याद किया था। उसे किसी बात को सोचने या समझने का शायद कभी मौका ही नहीं दिया गया। अर्थात् उसकी विचार-शक्ति को जरा भी प्रौढ़ता नहीं प्राप्त हुई। लड़कों के कोमल मन को किस तरह की शिक्षा देनी चाहिए, इस विषय का एक शब्द भी वहाँ उसको नहीं सिखाया गया। इस दशा में खुद कोई नई शिक्षा प्रणाली सोच कर निकालने की तो बात ही नहीं, उसे इस तरह की शिक्षा का गन्ध भी मदरसे में नहीं मिला। फिर वह बेचारी बाल-शिक्षा की नई तरकाव निकाले कैसे? यह तो मदरसे की शिक्षा का हाल हुआ। मदरसा छोड़ने और विवाह होने के बीच के वक्त में भी सन्तति के पालन-पोपण की शिक्षा उसे नहीं मिली। वह गाने बजाने, बेल बूटे काढ़ने, किस्से कहानियों की किताब पढ़ने और आज इसके यहाँ कल उसके यहाँ जलसों और दावतों में शरीक होने में गया। इस समय तक उसने इस बात का कुछ भी विचार नहीं किया कि लड़के वाले होने पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ेगी। इस तरह की जिम्मेदारी उठाने में, जो मानसिक शिक्षा स्त्री को थोड़ी बहुत मदद पहुँचाती है उस शिक्षा का शायद ही कुछ अंश उसे मिला हो।