पर भी लड़कों और लड़कियों को रोगी और अशक्त देख कर माँ बाप बहुधा अपना दुर्भाग्य या एक प्रकार का ईश्वरीय कोप समझते हैं। अथवा आज कल लोगों की जैसी बेढंगी समझ है उसके अनुसार वे यह कल्पना कर लेते हैं कि ये बातें अपने हाथ में नहीं---ये आपदायें बिना कारण ही पैदा हो गई हैं; या यदि किसी कारण हुई हैं तो उसका पैदा करने वाला ईश्वर है; उसे दूर करना आदमी के बस की बात नहीं। परन्तु इस बात को कौन समझदार आदमी न कबूल करेगा कि इस तरह की तर्कना पागलपन है? यह निस्संदेह सच है कि कभी कभी माँ बाप के दुर्गुणों और रोगों का फल सन्तान को भी भोगना पड़ता है, अर्थात् माँ बाप में जो दोष होते हैं वे कभी कभी सन्तान में भी आ जाते हैं; परन्तु बहुधा पालन-पोषण में माँ बाप की नादानी ही के कारण लड़कों को बीमारियाँ हो जाया करती हैं और फिर जन्म भर उनकी तबीयत अच्छी नहीं रहती। इस सारे दुख-दर्द के, इस सारी निर्बलता के, इस सारी आपदा के, इस सारी उदासीनता के ज़िम्मेदार बहुत कर के माँ बाप ही होते हैं। माँ बाप ने अपने बाल बच्चों की जान को हर घड़ी अपने काबू में रखने का ठेका सा ले रक्खा है---उनको खिलाने, पिलाने और शिक्षा देने का भार उन्होंने हर घड़ी अपने ही ऊपर रक्खा है। पर जिन्दगी से सम्बन्ध रखने वाली जिन बातों के विषय में वे अविचार से भरी हुई आज्ञायें दे कर और
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प्रबन्ध-पुष्पाञ्जलि