विस्यूवियस के ज्वालागर्भ मुंँह से धुर्वे के बादल निकलने लगे। धीरे धीरे उनका परिमाण बढ़ा। धुवाँ नेपल्स तक पहुंँचा और सारे शहर में छा गया। कुछ देर में जोर से हवा चलने लगी और उस के साथ ही "गड़ाम" की आवाज़ सुन पड़ी। बस फिर क्या था, प्रलय सी होने लगी। कलेजे को कँपाने वाली महाविकराल गड़गड़ाहट शुरू हुई। आकाश पाताल एक करने वाली विकट गर्जना को सुनकर लोग एकदम घबड़ा उठे। किवाड़ और खिड़कियाँ टूटने लगीं और यह मालूम होने लगा कि तोपों की बाढ़ पर बाढ़ दागी जा रही है। दूसरे दिन सबेरे सुन पड़ा कि विस्यूबियस के मुंँह से निकली हुई तरल अग्निधारा ने कई गाँव जला दिये। पर कुछ गाँव वाले मरने से बच गये। वे धारा के पहुंँचने के पहले ही भाग गये थे। विस्यूवियस के मुंँह तक जो रेल बनी थी वह बिलकुल ही बरबाद हो गई। खाक और धुवाँ चारों तरफ छा गया। नेपल्स में दिन की रात हो गई। विस्यूवियस धुर्वे के भीतर घुस गया। उसका कोई भाग न दिखलाई देने लगा। तीन दिन तक यही दशा रही। कोई विशेष बात नहीं हुई। चौथे दिन बिजली की शक्ल की आग की लपटें विस्यूवियस के ऊपर उठने और कई सौ फुट आसमान में घुसने लगीं। पत्थर, राख और अग्निधारा ने अनेक गाँव और नगर उजाड़ दिये। अनन्त जीवों का नाश कर डाला। जव विस्युवियस कुछ
पृष्ठ:प्रबन्ध पुष्पाञ्जलि.djvu/१५४
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४४
प्रबन्ध-पुष्पाञ्जलि