पृष्ठ:प्रबन्ध पुष्पाञ्जलि.djvu/१४७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

जैसा कि इस लेख के पूर्वोक्त में कहा जा चुका है पृथ्वी के पेट में अपार गरमी भरी हुई है। ऊपरी भाग तो ठण्डा है: पर भीतरी गरम। कुँवे के भीतर उतरने पर बहुत गरमी मालूम होती है। यदि दूर तक पृथ्वी खोदी जाती है तो गरम पानी, निकलने लगता है। गरम पानी के कितने ही चश्मे पहाडों से निकलते हैं। इसी से स्पष्ट है कि पृथ्वी के भीतर गरमी है अथवा यों कहिए कि आग जल रही है। यह धीरे धीरे ठण्डी होती जाती है; अर्थात पृथ्वी के पेट की गरमी धीरे धीरे कम हो रही है। यह वैज्ञानिक नियम है कि जो चीज ठण्डी होती जाती है वह सिकुड़ती है। गरमी से पदार्थों का आकार कुछ बड़ा हो जाता है और सरदी से कम।

पृथ्वी के भीतर सब कहीं बराबर गरमी नहीं: कहीं अधिक है कहीं कम। जो भाग बहुत अधिक गरम है वह जब ठण्डा होता है तब कम गरम भागों की अपेक्षा अधिक सिकुड़ जाता है। इसका फल यह होता है कि उसके और कम गरम भागों के बीच की जगह खाली रह जाती है। वहाँ पर महा भयङ्कर कन्दरायें सी बन जाती है। और उनके उपर पृथ्वी के कम गरम भाग (महराबों की तरह खड़े रह जाते हैं। ये मिहराब जब अपने उपर का वजन