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प्रतिज्ञा

सुमित्रा ने साड़ियों को बिना छुये हुए कहा--इनकी तो आज कोई ज़रूरत नहीं थी। मेरे पास साड़ियों की कमी नहीं है और पूर्णा रेशमी साड़ियाँ पहनना चाहेंगी, तो मैं अपनी नई साड़ियों में से एक दे दूँगी। क्यों बहन, इनमें से लोगी कोई साड़ी?

पूर्णा ने सिर हिलाकर कहा--नहीं, मैं रेशमी साड़ी लेकर क्या करूँगी।

कमला॰--क्यों, रेशमी साड़ी तो कोई छूत की चीज़ नहीं।

सुमित्रा--छूत की चीज़ नहीं; पर शौक की चीज़ तो है। सबसे पहले तो तुम्हारी पूज्य माताजी ही छाती पीटने लगेंगी!

कमला॰--मगर अब तो मैं लौटाने न जाऊँगा। बजाज समझेगा दाम सुनके डर गये।

सुमित्रा--बहुत अच्छी हों, तो प्रेमा के पास भेज दूँ। तुम्हारी बेसाही हुई साड़ी पाकर अपना भाग्य सराहेंगी। मालूम होता है, आज कल कहीं कोई रक़म मुफ्त हाथ आ गई है। सच कहना, किसकी गरदन रेती है। गाँठ के रुपए ख़र्च करके तुम ऐसी फ़जूल की चीजें कभी न लाये होगे।

कमला ने आग्नेय दृष्टि से सुमित्रा की ओर देखकर कहा--तुम्हारे बाप की तिजोरी तोड़ी है, और भला कहाँ डाका मारने जाता।

सुमित्रा--माँगते तो वह योंही दे देते। तिजोरी तोड़ने की नौबत न आती। मगर स्वभाव को क्या करो।

कमला ने पूर्णा की ओर मुँह करके कहा--सुनती हो पूर्णा इनकी बातें। पति से बातें करने का यही ढङ्ग है! तुम भी इन्हें नहीं समझाती,

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