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प्रतिज्ञा

कर देता था। ऐसा ही प्रतीत होता था, मानों उसका घर जल रहपर है और वह ताप रहे हैं। उन्हें विश्वास था कि प्रेमा से जितना प्रेम मैं करता हूँ, उतना अमृतराय नहीं करते। उसके बिना उन्हें अपना जीवन शून्य, निरुद्देश्य जान पड़ता था। वह पारिवारिक वृत्ति के मनुष्य थे। सेवा, प्रचार और आन्दोलन उनके स्वभाव में नहीं था, कीर्ति की अभिलाषा भी न थी, निष्काम कर्म तो बहुत दूर की बात है।

अन्त में बहुत सोचने-विचारने के बाद उन्होंने यही स्थिर किया कि एक बार अमृतराय को फिर टटोलना चाहिये। यदि अब भी उनका मत वह बदल सके, उन्हें आनन्द ही होगा, इसमें कोई सन्देह न था। जीवन का सुख तो अभिलाषा में है। यह अभिलाषा पूरी हुई, तो कोई दूसरी आ खड़ी होगी। जब एक-न-एक अभिलाषा का रहना निश्चित है, तो यही क्यों न रहे? इससे सुन्दर, आनन्द-प्रद और कौन-सी अभिलाषा हो सकती है? इसके सिवा यह भय भी था कि कहीं जीवन का यह अभिनय वियोगान्त न हो। प्रथम प्रेम कितना अमिट होता है, यह वह खूब जानते थे।

आज-कल कॉलेज तो बन्द था; पर दाननाथ 'डॉक्टर' की उपाधि के लिए एक ग्रन्थ लिख रहे थे। भोजन करके कॉलेज चले जाते थे। वहाँ पुस्तकालय में बैठकर जितनी सुविधाएँ थीं, घर पर न हो सकती थीं। आज वह सारे दिन पुस्तकालय में बैठे रहे; पर न तो एक अक्षर लिखा और न एक लाइन पढ़ी। उन्होंने वह दुस्तर कार्य कर डालने का आज निश्चय किया था, जिसे वह कई दिनों से टालते आते थे। क्या-क्या बातें होंगी, मन में यही सोचते हुए वह अमृतराय के बँगले

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