यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

थे। पूर्णा का जी ऊब उठा, यहाँ चली आई। प्रेमा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई।

पूर्णा ने चादर अलगनी पर रखते हुए कहा--तुम्हारे भैया आँगन में खड़े थे और मुँह खोले चली आती थी। मुझ पर उनकी नज़र पड़ गई होगी।

प्रेमा--भैया में किसी तरफ़ ताकने की लत नहीं है। यही तो उनमें एक गुण है। पतिदेव कहीं गये हैं क्या?

पूर्णा--हाँ, आज एक निमन्त्रण में गये हैं।

प्रेमा--सभा में न गये? आज तो बड़ी भारी सभा हुई है।

पूर्णा--वह किसी सभा समाज में नहीं जाते। कहते हैं--ईश्वर ने संसार रचा है, वह अपनी इच्छानुसार हरेक बात की व्यवस्था करता है; मैं उसके काम को सुधारने का साहस नहीं कर सकता।

प्रेमा-–आज की सभा देखने लायक थी। तुम होती, तो मैं भी जाती, समाज-सुधार पर एक महाशय का बहुत अच्छा व्याख्यान हुआ।

पूर्णा--स्त्रियों के सुधार का रोना रोया गया होगा?

प्रेमा--तो क्या स्त्रियों के सुधार करने की आवश्यकता नहीं है?

पूर्णा--पहले पुरुष लोग अपनी दशा तो सुधार लें, फिर स्त्रियों की दशा सुधारेंगे। उनकी दशा सुधर जाय, तो स्त्रियाँ आप-ही-आप सुधर जायँगी। सारी बुराइयों की जड़ पुरुष ही हैं।

प्रेमा ने हँसकर कहा--नहीं बहन, समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं और जब तक दोनों की उन्नति न होगी, जीवन सुखी न होगा। पुरुष के विद्वान होने से क्या स्त्री विद्वान् हो जायँगी! पुरुष तो अधिक-

२५