यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

तो मैं जाने पर तैयार हूँ। बड़ा मज़ा रहेगा। कहाँ हैं मिसरानी, अब उनके भाग्य चमके। रहेगी बिरादरी ही की विधवा न? कि बिरादरी की क़ैद भी नहीं रही?

देवकी--यह तो नहीं जानती, अब क्या ऐसे भ्रष्ट हो जायँगे?

कमला--यह समावाले जो कुछ न करें वह थोड़ा। इन सभी को बैठे-बैठे ऐसी बेपर की उड़ाने की सूझती है। एक दिन पंजाब से कोई बौखल आया था, कह गया, जात-पात तोड़ दो, इससे देश में फूट बढ़ती है। ऐसे ही एक और जाँगलू आकर कह गया, चमारों-पासियों को भाई समझना चाहिये। उनसे किसी तरह का परहेज़ न करना चाहिये। बस सब-के-सब, बैठे-बैठे यही सोचा करते हैं कि, कोई नई बात निकालनी चाहिये। बुड्ढे गाँधी जी को और कुछ न सूझी, तो स्वराज्य ही का डंका पीट चले। सभों ने बुद्धि बेच खाई है।

इतने में एक युवती ने आँगन में क़दम रक्खा, मगर कमला-प्रसाद को देखते ही ड्योढ़ी में ठिठक गई। देवकी ने कमला से कहा--तुम ज़रा कमरे में चले जाओ, पूर्णा ड्योढ़ी में खड़ी है।

पूर्णा को देखते ही प्रेमा दौड़कर उसके गले से लिपट गई। पड़ोस में एक पण्डित वसन्तकुमार रहते थे। किसी दफ्तर में क्लार्क थे। पूर्णा उन्हीं की स्त्री थी, बहुत ही सुन्दर, बहुत ही सुशील। घर में दूसरा कोई न था। जब दस बजे पण्डितजी दफ्तर चले जाते, तो यहीं चली आती और दोनों सहेलियाँ शाम तक बैठी हँसती-बोलती रहतीं। प्रेमा को उससे इतना प्रेम था कि यदि किसी दिन वह किसी कारण से न आती तो स्वयं उसके घर चली जाती। आज वसन्तकुमार कहीं दावत खाने गये

२४