पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/२१९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

हूँ। कम से कम यह भय तो नहीं है, मेरी चीज़ किसी और को मिल रही है। आगे के लिए भी अब यह भय न रहेगा, देहात जाने का हुक्म हो गया है।

प्रेमा ने पूछा---कौन-कौन जायगा?

सुमित्रा--बस, हम दोनो। असल में लालाजी उन्हें यहाँ से हटा देना चाहते हैं; लेकिन यह तो अच्छा नहीं लगता कि वह अकेले देहात में जाकर रहें। मैंने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर लिया है। दो-चार दिन में चल देंगे। तुम से मिलना तो चाहते हैं; पर मारे संकोच के न आते हैं, न बुलाते हैं। कहते हैं---मैं उनके सामने कैसे ताकूँगा?

प्रेमा---इसी संकोच के मारे मैं नहीं गई। भैया पछताते तो होंगे?

सुमित्रा---पछताते तो नहीं, रोते हैं। ऐसा रोते हैं, जैसे कोई लड़की मैके से बिदा होते वक्त रोती है। सदा के लिए सबक़ मिल गया। मैं तो पूर्णा को पाऊँ, तो उसके चरण धो-धोकर पिऊँ। है बड़ी हिम्मत की औरत। एक बार उससे जाकर मिल क्यों नहीं आतीं?

एकाएक दाननाथ हाथ में एक पत्र लिये लपके हुए आये, और कुछ कहना चाहते थे कि सुमित्रा को देखकर ठिठक गये। फिर झेंपते हुए बोले---सुमित्रा देवी कब आई? मुझे तो खबर ही नहीं हुई।

सुमित्रा ने मुस्कराकर कहा---आपने तो आना-जाना छोड़ दिया; पर हम तो नहीं छोड़ सकते।

दाननाथ कुछ उत्तर देने ही को थे कि प्रेमा ने उनके मुखाभास से उनके मन का भाव ताड़कर कहा--जाना-आना भला कहीं छूट सकता है बहन! इनका जी ही अच्छा नहीं रहा।

२१४