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प्रतिज्ञा

उसाँठ-गाँठजी आकर बोली---आज ससुराल की ओर तो नहीं गये थे बेटा? कुछ गड़बड़ सुन रही हूँ।

दाननाथ माता के सामने ससुराल की कोई बुराई न करते थे। औरतों को अप्रसन्न करने का इससे सरल कोई उपाय नहीं है। फिर अभी उन्होंने प्रेमा से कठोर बातें की थीं, उनका कुछ खेद भी था। अब उन्हें मालूम हो रहा था कि वही बातें सहानुभूति के ढङ्ग से भी कही जा सकती थीं। मन खेद प्रकट करने के लिए आतुर हो रहा था। बोले---सब गप है अम्माँजी!

'गप कैसी, बाज़ार में सुने चली आती हूँ। गंगा-किनारे यही बात हो रही थी। वह ब्राह्मणी वनिता-भवन पहुँच गई।'

दानानाथ ने आँखें फाड़कर पूछा---वनिता-भवन! वहाँ कैसे पहुँची?

'अब यह मैं क्या जानूँ? मगर वहाँ पहुँच गई, इसमें सन्देह नहीं। कई आदमी वहाँ पता लगा लाये। मैं कमला को देखते ही भाँप गई थी कि यह आदमी निगाह का सच्चा नहीं है; लेकिन तुम किसकी सुनते थे?'

'अम्माँ, किसी के दिल का हाल कोई क्या जानता है?'

'जिनके आँखें हैं, वह जान ही जाते हैं। हाँ, तुम-जैसे आदमी

धोखा खा जाते हैं। अब शहर में तुम जिधर जाओगे, उधर उँगलियाँ उठेंगी। लोग तुम्हें भी दोषी ठहराएँगे। वह औरत वहाँ जाकर न-जाने क्या-क्या बातें बनाएगी। एक-एक बात की सौ-सौ लगाएगी। यह मैं कभी न मानू़ँगी कि पहले से कुछ साँठ-गाँठ न थी। अगर पहले से

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