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प्रतिज्ञा

सकते; हमारी-आपकी हस्ती ही क्या है। साधुओं के वेष में बहुधा दुष्ट...।"

सहसा लाला बदरीप्रसाद ने कमरे में क़दम रखते हुए कहा---जैसे तुम खुद हो। शर्म नहीं आती, बोलने को मरते हो। तुम्हें तो मुँह में कालिख पोतकर कहीं डूब मरना चाहिए था। मगर तुम-जैसे पापियों में इतना आत्माभिमान कहाँ? तुमने सच कहा कि बहुधा साधुओं के भेष में दुष्ट छिपे होते हैं। जिनकी गोद में खेलकर तुम पले, उन्हें भी तुमने उल्लू बता दिया। मुझ-जैसे दुनिया देखे हुए आदमी को भी तुमने बुत्ता दिया। अगर मुझे मालूम होता कि तुम इतने भ्रष्ट-चरित्र हो, तो मैंने तुम्हें विष दे दिया होता। मुझे तुम्हारी सच्चरित्रता पर अभिमान था---मैं समझता था, तुममें और चाहे कितनी ही बुराइयाँ हो, तुम्हारा चरित्र निष्कलङ्क है। मगर आज ज्ञात हुआ कि तुम जैसा नीच और अधम प्राणी संसार में न होगा। जिस अनाथिनी को मैंने अपने घर में शरण दी; जिसे मैं अपनी कन्या समझता था; जिसे तुम भी अपनी बहन कहते थे, उसी के प्रति तुम्हारी यह नीयत! तुम्हें चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए। उसने तुम्हें मार क्यों न डाला, मुझे यही दुःख है। तुम जैसे कायर को यही दण्ड उचित था।

दाननाथ ने दबी ज़बान से पूछा---भाई साहब का ख़्याल है कि अमृतराय...

बदरीप्रसाद ने दाँत पीसकर कहा---बिलकुल झूठ, सरासर झूठ, सोलहो आना झूठ। हमारा अमृतराय से सामाजिक प्रश्नों पर मतभेद है; लेकिन उनका चरित्र जितना उज्ज्वल है, वैसा संसार में कम

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