यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

प्रतिज्ञा


अमृतराय ने सजल नेत्रों से देखकर कहा—नहीं दाननाथ, तुम्हारी बातों से मैं कभी नाराज़ नहीं हो सकता। तुम्हारी झिड़कियों में भी वह रस है, जो दूसरों की वाह-वाह में नहीं। मैं जानता हूँ, तुमने इस समय जो कुछ कहा है, केवल स्नेह-भाव से कहा है। दिल में तुम खूब समझते हो कि मैं नाम का भूखा नहीं हूँ, कुछ काम करना चाहता हूँ।

दाननाथ ने स्नेह से अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोले—फिर सोच लो, ऐसा न हो पीछे पछताना पड़े।

अमृतराय ने कुरसी पर बैठते हुए कहा—नहीं भाई दान, मुझे पछताना पड़ेगा। इसका मुझे पूर्ण विश्वास है। सच पूछो, तो आज मुझे जितना आनन्द मिल रहा है, उतना और कभी न मिला था। आज कई महीनों के मनोसंग्राम के बाद मैंने विजय पाई है। मुझे प्रेमा से जितना प्रेम है, उससे कई गुना प्रेम मेरे एक मित्र को उससे है। उन्होंने कभी उस प्रेम को प्रकट नहीं किया; पर मैं जानता हूँ कि उनके हृदय में से उसके प्रेम की ज्वाला दहक रही है। मैं भाग्य की कितनी ही चोटें सह चुका हूँ। एक चोट और भी सह सकता हूँ। उन्होंने अब तक एक चोट भी नहीं सही। यह निराशा उनके लिए घातक हो जायगी।

यह सङ्केत किसकी ओर था, दाननाथ से छिपा न रह सका। जब अमृतराय की पहली स्त्री जीवित थी, उसी समय दाननाथ की प्रेमा से विवाह की बात-चीत हुई थी। जब प्रेमा की बहन का देहांत हो गया तो उसके पिता लाला बदरीप्रसाद ने दाननाथ की ओर से मुँह फेर लिया। दाननाथ विद्या, धन और प्रतिष्ठा, किसी बात में भी अमृतराय

१४