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प्रतिज्ञा

जब कभी जी ऊबता, ससुराल चले जाते और दो घड़ी हँस-बोल कर चल आते। आखिर एक दिन उनकी सास ने मतलब की बात कह दी। अमृतराय तो प्रेमा के रूप और गुण पर मोहित ही ही चुके थे। अंधे को जैसे आँखें मिल गई। बात-चीत पक्की हो गई। इसी सहालग में विवाह होने की तैयारियाँ थीं कि आज अमृतराय ने यह प्रतिज्ञा कर ली।

दाननाथ यह लम्बा व्याख्यान सुनकर बोले—तो तुमने निश्चयः कर लिया?

अमृतराय ने गर्दन हिलाकर कहा—हाँ, कर लिया।

दान॰—और प्रेमा?

अमृत॰—उसके लिए मुझसे कहीं सुयोग्य वर मिल जायगा।

दाननाथ ने तिरस्कार-भाव से कहा—क्या बातें करते हो। तुम समझते हो, प्रेम कोई बाजार का सौदा है, जी चाहा लिया, जी चाहा न लिया। प्रेम एक बीज है, जो एक बार जमकर फिर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। कभी-कभी तो जल और प्रकाश और वायु बिना ही जीवन पर्यन्त जीवित रहता है। प्रेमा केवल तुम्हारी मँगेतर नहीं है, वह तुम्हारी प्रेमिका भी है। यह सूचना उसे मिलेगी तो उसका हृदय भग्न हो जायगा। कह नहीं सकता, उसकी क्या दशा हो जाय। तुम उस पर घोर अन्याय कर रहे हो।

अमृतराय एक क्षण के लिए विचार में डूब गये। अपने विषय में तो उन्हें कोई चिंता न थी। वह अपने हृदय को कर्तव्य की भेंट कर सकते थे। इसका निश्चय ही कर लिया था। उस मनोव्यथा को

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