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प्रतिज्ञा

भी कहने का साहस कर सकता है? अपना और उसका खून कर दूँ; मगर अन्दर तो आओ।

पूर्णा---नहीं, मेरे अन्दर आने की ज़रूरत नहीं। यों ही ताने मिल रहे हैं, फिर तो न-जाने क्या कलङ्क लग जायगा।

कमलाप्रसाद ने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा--किसने ताना दिया है? सुमित्रा ने?

पूर्णा---किसी ने दिया हो, आपका पूछना और मेरा कहना दोनो व्यर्थ है। तानेवाली बात होगी तो सभी ताने देंगे। आप किसी का मुँह नहीं बन्द कर सकते। केले के लिए तो ठीकरा भी पैनी छुरी बन जाता है। सबसे अच्छा यही है कि मैं यहाँ से चली जाऊँ। आप लोगों ने मेरा इतने दिन पालन किया, इसके लिए मेरा एक-एक रोआँ आप लोगों का जस गायेगा।

'कहाँ जाना चाहती हो?'

'कहीं-न-कहीं ठिकाना लग ही जायगा। और कुछ न होगा तो गंगाजी तो हैं ही।'

'तो पहले मुझे थोड़ा-सा संखिया देती जाओ।'

पूर्णा ने तिरस्कार के भाव से देखकर कहा---कैसी बात मुँह से निकालते हो बाबूजी! मेरा प्राण भी आप लोगों के काम आये तो मुझे उसको देने आनन्द मिलेगा; लेकिन बात बढ़ती जाती है और आगे चलकर न-जाने और कितनी बढ़े, इसलिए मेरा यहाँ से टल जाना ही अच्छा है।

कमलाप्रसाद ने पूर्णा का हाथ पकड़कर बलात् अन्दर खींच

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