पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/१६०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

मारोगी? औरत निर्बल होती है, उसे उपदेश देनेवाले बहुत होते है मर्दों को कोई नहीं समझाता। इतनी देर बैठी सुनती रही, एक बार भी तुम्हारे मुँह से न निकला कि बाबूजी यह कैसी बातें कर रहे हो। तुम खुश हो रही होगी कि अच्छा हो रहा है, इसकी दुर्गति हो रही है।

पूर्णा को यह अन्तिम वाक्य वाण के समान लगा। वह हक्की-बक्की होकर सुमित्रा का मुँह ताकने लगी। यद्यपि वह सदैव सुमित्रा की ठकुरसुहाती किया करती थी; फिर भी वह यह जानती थी कि जिस दिन कमलाप्रसाद साड़ियाँ लाये थे, उसी दिन से सुमित्रा उसे सन्देह की दृष्टि से देखने लगी है; किन्तु उस अवसर पर पूर्णा ने कमला का उपहार वापस करके अपनी समझ में सन्देह को मिटा देने का सफल प्रयत्न किया था। फिर आज सुमित्रा अकारण ही क्यों उस पर यो निर्दय प्रहार कर रही है। उसे फिर भ्रम हुआ कि कहीं सुमित्रा ने रात की बात जान तो नहीं ली। वह भीत और पाहत होकर दबी ज़बान से बोली---बहन, तुम्हारे मन में जो बात हो वह साफ़-साफ़ कह दो। मुझ अनाथ को जलाकर क्या पाओगी? अगर मेरा यहाँ रहना तुम्हें बुरा लगता हो तो मैं आज ही मुँह में कालिख लगाकर यहाँ से चली जाऊँगी। संसार में लाखों विधवाएँ पड़ी हैं, क्या सभी के रक्षक बैठे हैं? किसी भाँति उनके दिन भी कटते ही हैं। मेरे भी उसी भाँति कट जायँगे। और फिर कहीं आश्रय नहीं है, तो गङ्गा तो कहीं नहीं गई हैं।

सुमित्रा ने फिर भी पूर्णा के आहत हृदय पर फाहा रखने की चेष्टा

नहीं की। और भी नाक सिकोड़कर बोली---मुझे तुम्हारा रहना क्यों

१५५