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प्रतिज्ञा

अमृतराय--वही जो तुम्हें नहीं सूझी।

दान॰--प्रेमा सुनेगी तो क्या कहेगी?

अमृत॰--खुश होगी। कम से कम, उसे खुश होना चाहिये अपने मित्रा को कर्तव्य के आगे सिर झुकाते देखकर कौन खुश नही होता?

दान॰--अजी जाओ भी, बातें बनाते हो। उसे तुमसे कितना प्रेम है, तुम खूब जानते हो। यद्यपि अभी विवाह नहीं हुआ; लेकिन सारा शहर जानता है कि वह तुम्हारी मँगेतर है। सोचो, उसे तुम कितना बार प्रेम-पत्र लिख चुके हो। तीन साल से वह तुम्हारे नाम पर बैठे हुई है। भले आदमी, ऐसा रल तुम्हें संसार में और कहाँ मिलेगा अगर तुमने उससे विवाह न किया तो तुम्हारा जीवन नष्ट हो जायगा तुम कर्तव्य के नाम पर जो चाहे करो; पर उसे अपने हृदय से नही निकाल सकते।

अमृत॰--यह अब मैं खूब समझ रहा हूँ भाई; लेकिन अब मेरा मन कह रहा है कि मुझे उससे विवाह करने का अधिकार नहीं है। पण्डित अमरनाथ की बात मेरे दिल में बैठ गई है।

दाननाथ ने अमरनाथ का नाम आते ही नाक सिकोड़कर कहा--क्या कहना है, वाह! रटकर एक व्याख्यान दे दिया और तुम लट्टू हो गये। वह बेचारे समाज की क्या ख़ाक व्यवस्था करेंगे! यह अच्छा सिद्धान्त है कि जिसकी पहली स्त्री मर गई हो, वह विधवा से विवाह करे!

अमृत॰--न्याय तो यही कहता है।