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प्रतिज्ञा

हो जाती, कभी बैठ जाती। उसकी सारी करुणा, सारी कोमलता, सारी ममता, उसे अमृतराय के जलसे में जाने से रोकने के लिए उनके घर जाने की प्रेरणा करने लगी। उसका स्त्री-सुलभ संकोच एक क्षण के लिए लुप्त हो गया। एक बार भय हुआ कि दाननाथ को बहुत बुरा लगेगा; लेकिन उसने इस विचार को ठुकरा दिया। तेज-मय गर्व से उसका मुख उद्दीप्त हो उठा---मैं किसी को लौंडी नहीं हूँ---किसी के हाथ अपनी धारणा नहीं बेची है--प्रेम पति के लिए है; पर भक्ति सदा अमृतराय के साथ रहेगी।

सहसा उसने कहार को बुलाकर कहा---एक ताँगा लाओ।

माता ने पूछा---कहाँ जायगी बेटी?

प्रेमा--ज़रा बाबू अमृतराय के घर तक जाऊँगी अम्माँजी। मुझे भय है कि आज अवश्य फसाद होगा। उनको मना कर दूँ कि जलसे में न जायँ।

माता---बड़ी अच्छी बात है बेटी। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। मेरी बात वह न टालेगा। जब नन्हा-सा था, तभी से मेरे घर आता-जाता था। न जाने ऐसी क्या बात पैदा हो गई कि इन दोनो में ऐसी अनबन हो गई। बहू, मैंने दो भाइयों में भी ऐसा प्रेम नहीं देखा।

प्रेमा---यह सब भैया का पढ़ाया हुआ पाठ है। उन्हें आरम्भ से बाबू अमृतराय से चिढ़ है। उनका विचित्र स्वभाव है। उनसे बढ़कर योग्य और कुशल होना ऐसा अपराध है, जिसे वह क्षमा नहीं कर सकते।

माता---दानू बेचारा भोला है। उनकी बातों में आ गया।

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