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प्रतिज्ञा

दान॰---जी नहीं, माफ कीजिये, आप तो पीठ सुहलायेगे; और मुझे महीने भर मालिश करानी पड़ेगी। सच कहना, मैं आगे चलकर बोल सकूँगा?

अमृत॰---अब तुम मेरे हाथों पिटोगे। तुमने पहली ही स्पीच में अपनी धाक जमा दी, आगे चलकर तो शायद तुम्हारा जवाब ही न मिलेगा। मुझे दुःख है तो यही कि हम और तुम अब तो प्रतिकूल मार्ग पर चलते नज़र आवेंगे। मगर यार, यहाँ दूसरा कोई नहीं है, क्या तुम दिल से समझते हो कि सुधारों से हिन्दू-समाज को हानि पहुँचेगी?

दाननाथ ने सँभलकर कहा---हाँ भाई, इधर मैंने धर्म-साहित्य का जो अध्ययन किया है, उसमें मैं इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ। मगर बहुत सम्भव है कि मुझे भ्रम हुआ हो।

अमृत॰--–तो फिर हमारी और तुम्हारी खूब छनेगी; मगर एक बात का ध्यान रखना, हमारे सामाजिक सिद्धान्तों में चाहे कितना ही भेद क्यों न हो, मञ्च पर चाहे एक दूसरे को नोच ही क्यों न खाएँ; मगर मैत्री अक्षुण्ण रहनी चाहिये। हमारे निज के सम्बन्ध पर उनकी आँच तक न आने पाये। मुझे अपने ऊपर तो विश्वास है। लेकिन तुम्हारे ऊपर मुझे विश्वास नहीं है। क्षमा करना, मुझे भय है कि तुम...

दाननाथ ने बात काटकर कहा---अपने ओर से भी मैं तुम्हें यही विश्वास दिलाता हूँ। कोई वजह नहीं है कि हमारे धार्मिक विचारों का हमारी मित्रता पर असर पड़े।

अमृतराय ने संदिग्ध भाव से कहा---तुम कहते हो, मगर मुझे विश्वास नहीं आता।

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