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प्रतिज्ञा

प्रेमा---मुझे तो तुमने सुनाई ही नहीं। मैं भी जाऊँगी। देखूँ तुम कैसा बोलते हो?

दाननाथ---नहीं प्रिये, तुम वहाँ रहोगी, तो मैं शायद न बोल सकूँगा। तुम्हें देख-देखकर मुझे झेंप होगी। मैंने ऐसी कितनी ही बातें यहाँ लिखी हैं, जिनका मैं कभी पालन नहीं करता। स्पीच सुनकर लोग समझेंगे, धर्म का ऐसा रक्षक आज तक पैदा ही नहीं हुआ। तुम्हारे सामने अपने धर्म का स्वाँग रचते मुझे शर्म आयेगी। दो-एक बार बोलने के बाद जब मैं गप हाँकने और देवता बनने में अभ्यस्त हो जाऊँगा, तो मैं स्वयं तुम्हें ले चला करूँगा!

प्रेमा---लालाजी ने तुम्हें आखिर अपनी ओर घसीट ही लिया?

दान॰---उन्हें तो आज दोपहर तक खबर न थी। मुझे खुद बुरा मालूम होता है कि समाज-सुधार के नाम पर हिन्दू-समाज में वे सब बुराइयाँ समेट ली जायँ जिनसे पश्चिमवाले अब खुद तङ्ग आ गये हैं। अछूतोद्धार का चारो ओर शोर मचा हुआ है। कुँओं पर आने से मत रोको, मन्दिर में जाने से मत रोको, मदरसों में जाने से मत रोको। अछूतोद्धार के पहले अछूतों को सफाई और आचार-विचार की कितनी ज़रूरत है, इसकी और किसी की निगाह नहीं। बस, इन्हें जल्दी से मिला लो, नहीं तो ये ईसाई या मुसलमान हो जायँगे। ऐसी-ऐसी भ्रष्टाचारी जातियों को मिलाकर मुसलमान या ईसाई ही क्या भुना लेंगे? लाखों चमार और डोमड़े ईसाई हो गये हैं, मद्रास-प्रान्त में तो गाँव के गाँव ईसाई हो गये; मगर उनके आचरण और व्यवहार अब भी वही है; प्रेत-पूजा की उनमें अब भी प्रथा है। सिवाय इसके कि

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