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प्रतिज्ञा


दाननाथ—मेरे साथ खेलते थे, तो रुला-रुला मारता था।

भोजन करने के बाद दाननाथ बड़ी देर तक प्रेमा की बातों पर विचार करते रहे। प्रेमा ने पीछे से घाव पर मरहम रखनेवाली बातें करके उन्हें कुछ ठण्ढा कर दिया था। उन्हें अब मालूम हुआ कि प्रेमा ने जो कुछ कहा, उसके सिवा वह और कुछ कह ही न सकती थी। उन्होंने कमलाप्रसाद के मुँह से जो बातें सुनी थी, वही कह डाली थी। खुद उन बातों को न तोला, न परखा। कमलाप्रसाद की बातों पर उनको विश्वास क्यों आ गया। यह उनकी कमजोरी थी। ईर्ष्या कानों की पुतली होती है। प्रतियोगी के विषय में वह सब कुछ सुनने को तैयार रहती है। अब दाननाथ को सूझी कि बहुत सम्भव है, कमला ने वे बातें मन से गढ़ी हों। यही बात है। अमृतराय इतने छिछोरे, ऐसे दुर्बल कभी न थे। प्रेमा के साहसिक प्रतिवाद ने उस नशे को और भी बढ़ा दिया, जो उन पर पहले ही सवार था। प्रेमा ज्योंही भोजन करके लौटी, उससे क्षमा मांगने लगे—तुम मुझसे अप्रसन्न हो गई क्या, प्रिये?

प्रेमा ने मुस्कराकर कहा—मैं? भला तुमने मेरा क्या बिगाड़ा था? हाँ, मैंने बेहूदी बातें बक डाली थीं। मैं तो खुद तुमसे क्षमा मांगने आई हूँ।

लेकिन दाननाथ जहाँ विनोदी स्वभाव के मनुष्य थे, वहाँ कुछ दुराग्रही भी थे। जिस मनुष्य के पीछे उनका अपनी ही पत्नी के हाथों इतना घोर अपमान हुआ, उसे वह सस्ते नहीं छोड़ सकते। सारा संसार अमृतराय का यश गाता, उन्हें कोई परवाह न थी; नहीं तो वह भी उस स्वर में अपना स्वर मिला सकते थे; वह भी करतलध्वनि कर सकते

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