बोले---मुझे नहीं मालूम था कि तुम अमृतराय को देवता समझ रही हो, हालाँकि देवता भी फिसलते देखे गये हैं।
प्रेमा ने नम्रता से कहा---मैं उन्हें देवता नहीं समझती; लेकिन पशु भी नहीं समझती। अगर उन्हें वासना ही ने सताया था, तो क्या वह अपना विवाह नहीं कर सकते थे?
दाननाथ--तो फिर लीडर कैसे बनते, हम जैसों की श्रेणी में न आ जाते? अपने त्याग का सिक्का जनता पर कैसे बैठाते?
प्रेमा---अच्छा, बस करो; मुझ पर दया करो। ऐसी बातें औरों से किया करो, मैं नहीं सुन सकती। मैं मानती हूँ कि मनुष्य भूल-चूक का पुतला है। सम्भव है, आगे चलकर अमृतराय भी आदर्श से गिर जायँ---कुपथ पर चलने लगें; लेकिन यह कहना कि वह इसी नियम से सारा काम कर रहे हैं, कम-से-कम तुम्हारे मुँह से शोभा नहीं देता। रही चन्दे की बात। जो अपना सर्वस्व दे डालता, उसे चन्दे उगाहने में कठिनाई नहीं होती। लोग ख़ुशी से उसको देते हैं। उस पर सब को विश्वास हो जाता है। चन्दे उन्हीं को नहीं मिलते जिनके विषय में लोगों को सन्देह होता है।
इतने में वृद्धा माता आकर खड़ी हो गई। दाननाथ ने पूछा---क्या है अम्माँजी?
माता--तुम दोनो में झगड़ा क्यों हो रहा है?
दाननाथ ने हँसकर कहा---यही मुझसे लड़ रही है अम्माँजी, मैं तो बोलता भी नहीं।
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