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प्रतिज्ञा

पाखण्ड मय हो गया है। मैं इस पाखण्ड का अन्त कर दूँगा। पूर्णा, मैं तुमसे सच कहता हूँ; मैंने आज तक किसी स्त्री की ओर आँख नहीं उठाई। मेरी निगाह में कोई जँचती ही न थी, लेकिन तुम्हें देखते ही मेरे हृदय में एक विचित्र आन्दोलन होने लगा। मैं उसी वक्त समझ गया कि यह ईश्वर की प्रेरणा है। यदि ईश्वर की इच्छा न होती तो तुम इस घर में आतीं ही क्यों? इस वक्त तुम्हारा यहाँ आना भी ईश्वरीय प्रेरणा है, इसमें लेशमात्र भी सन्देह न समझना। एक-से-एक सुन्दरियाँ मैंने देखी; मगर इस चन्द्र में हृदय को खींचनेवाली जो शक्ति है, वह किसी में नहीं पाई।

यह कहकर कमलाप्रसाद ने पूर्णा के कपोल को उँगली से स्पर्श किया। पूर्णा का मुख आरक्त हो गया, उसने झिझककर मुँह हटा लिया; पर कुर्सी से उठी नहीं। यहाँ से अब भागना नहीं चाहती थी, इन बातों को सुनकर उसके अन्तस्तल में ऐसी गुदगुदी हो रही थी, जैसी विवाह मण्डप में जाते समय युवक के हृदय में होती है।

कमला को सहसा साड़ियों की याद आ गई। दोनों साड़ियाँ अभी तक उसने सन्दूक में रख छोड़ी थीं । उसने एक साड़ी निकालकर पूर्णा के सामने रख और कहा---देखो, यह वही साड़ी है पूर्णा, उस दिन तुमने इसे अस्वीकार कर दिया था, आज इसे मेरी खातिर से स्वीकार कर लो। एक क्षण के लिए इसे पहन लो। तुम्हारी यह सफ़ेद साड़ी देखकर मेरे हृदय में चोट-सी लगती है। मैं ईमान से कहता हूँ; यह तुम्हारे ही वास्ते लाया था। सुमित्रा के मन में कोई सन्देह न हो; इसलिए एक और लानी पड़ी। नहीं, उठाकर रखो मत। केवल एक ही

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