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महान होने पर भी कैसे भयानक हैं। यह दद्दा ही का प्रभाव
है। कनवजियों के हक़ में दमाद और दहेज, खरीदारों के हक
में दुकानदार और दलाल, चिड़ियों के हक में दाम ( जाल)
और दाना आदि कैसे दुःखदायी हैं ! दमड़ी कैसी तुच्छ संज्ञा
है, दाद कैसा बुरा रोग हैं, दरिद्र कैसी कुदशा है, दारू कैसी
कडुवाहट, बदबू, बदनामी और बदफैली की जननी है, दोग़ला
कैसी खराब गाली है, दंगा-बखेड़ा कैसी बुरी आदत है, दंश
(मच्छड़ या डास ) कैसे हैरान करनेवाले जंतु हैं, दमामा कैसा
कान फोड़नेवाला बाजा है, देशी लोग कैसे घृणित हो रहे हैं,
दलीपसिंह कैसे दीवानापान में फंस रहे हैं। कहां तक गिनावें,
दुनियाभरे की दन्त-कटाकट 'दकार' में भरी है, इससे हम
अपने प्रिय पाठकों का दिमाग चाटना नहीं पसन्द करते, और
इस दुस्सह अक्षर की दास्तान को दूर करते हैं।
'ट'।
इस अक्षर में न तो 'लकार' का सा लालित्य है, न 'दकार'
का सा दुरूहत्व, न 'मकार' का सा ममत्व-बोधक गुण है, पर
विचार कर के देखिए तो शुद्ध स्वार्थपरता से भरा हुवा है !
सूक्ष्म विचारके देखो तो फारस और अरब की ओर के लोग
निरे छल के रूप, कपट की मूरत नहीं होते, अप्रसन्न होके
मरना मारना जानते हैं, जबरदस्त होने पर निर्बलों को मनमानी
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