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प्रस्तावना
इधर कुछ दिनों से हिंदीवालों का ध्यान पुराने लेखकों
को पुनरुज्जीवित करने की ओर गया है। हिंदी-प्रेमी इस बात
का अनुभव करने लग गये हैं कि हम अपने साहित्यसेवियों
का उतना सम्मान करना तथा उनकी कृतियों का उतना मनन-
पूर्वक अध्ययन करना अभी तक नहीं सीखे हैं जितना कि अन्य
देशवाले अपने लेखकों के लिए करते हैं। इसी उदासीनता
अथवा मानसिक शैथिल्य के कारण आजकल के कितने ही
वाचकगणों की यह दशा हो गई है कि यदि उनसे पूछा जाय
कि हिंदी के प्राचीन तथा अर्वाचीन लेखक कौन कौन से हैं ?
तो वे तुलसी, सूर, केशव, भूषण, हरिश्चंद्र, अयोध्यासिंह,
श्रीधर पाठक, रत्नाकर आदि के नाम तो तुरंत बड़े गौरव से
लेने लगेंगे। पर, यदि इनमें से किसी एक के विषय में कोई
मार्मिक प्रश्न उठाया जाय तो वे अवाक रह जायेंगे और अंत
में उनके पल्लवग्राहि पांडित्य की कलई यहाँ तक खुलेगी कि