उनसे पहले हिंदी में गद्य-साहित्य नहीं होने के बराबर था। जो था वह बालकृष्ण जी भट्ट के शब्दों में ‘बहुत कम और पोच’ था। कुछ पहले उन्हीं के समय राजा शिवप्रसाद ने अपनी उर्दू-मिली हुई भाषा लिख कर हिंदी और उर्दू के बीच में ‘पुल’ बनाने का साहसपूर्ण प्रयत्न किया था। राजा साहब के इस प्रयत्न से हिंदी-गद्य को एक नयी स्फूर्ति अवश्य मिली, क्योंकि उनके पहले वह निर्जीव सा था।
प्रतापनारायण जी ने बालकृष्ण जी भट्ट के साथ मिल कर राजा साहब के अत्यधिक उर्दूपन को रोकने का निश्चय किया ! उसके बदले में मिश्र जी ने ग्रामीणता, हास्य तथा व्यंग की मात्रा बढ़ाई। इन तीनों के रासायनिक संयोग से एक प्रौढ़,. सुबोध, तथा सजीव शैली आविर्भूत हुई। यह एक स्पष्ट सिद्धांत है कि किसी भाषा के गद्य को परिमार्जित और लचीला बनाने के लिए उसमें हास्य तथा व्यंग इन दोनों उपादानों की ज़रूरत पड़ती है। इनके बिना भाषा शुष्क और परिमित-प्रयोग रहती है।
इन गुणों के साथ प्रतापनारायण ने घरेलू मुहावरेदार.
भाषा का भी संमिश्रण किया है जिससे उनकी शैली में सजीविता
आ गई है। उनके समकालीन किसी भी लेखक की भाषा का
नित्य-प्रति की बोलचाल की भाषा से इतना घनिष्ट संबंध नहीं
है जितना उनका। अस्तु हिंदी-गद्य को वाग्धारा से संयोजन
करके उसकी भावी उन्नति का पथ दिखाने में ही उनका स्थान