पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/४१

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उदाहरण लीजिए:---

"यह तो समझिए यह देश कौन है? वही न? जहाँ पूज्य मूर्त्तियाँ भी दो एक को छोड़ चक्र वा त्रिशूल व खड्ग वा धनुष से खाली नहीं हैं; जहां धर्म-ग्रंथ में भी धनुर्वेद मौजूद है, जहां शृंगार रस में भी भ्रू-चाप और कटाक्ष-बाण, तेग़े अदा व कमाने अब्र का वर्णन होता है। यहां से लड़ाई भिड़ाई का सर्वथा अभाव हो जाना मानो सर्वनाश हो जाना है। अभी हिंदुस्तान से किसी वस्तु का निरा अभाव नहीं हुआ। सब बातों की भांति वीरता भी लस्टम पस्टम बनी ही है। पर क्या कीजिये, अवसर न मिलने ही से 'बांधे बछेड़ा कट्टर होइगे बइठे ज्वान गये तोंदियआय'।"

('दशहरा और मुहर्रम')

कैसा चुभता हुआ व्यंग है और अंत में कैसी उपयुक्त कहावत है! उनके लेखों के शीर्षक भी क्या ही विचित्र होते थेः--- 'मरे का मारैं साह मदार', 'ऊंच निवास नीच करतूती', 'घूरे के लत्ता बिनैं कनातन का डौल बाँधै', 'आप', 'ट', 'द' इत्यादि। यही नहीं इन अजीब शीर्षकों को ले कर कभी कभी वे प्रकांड निबंध-लेखक की सी काल्पनिक उड़ान लेते हैं जिससे उनकी स्वाभाविक सूझ का पता लगता है।

यह तो हुई मिश्र जी के लेखों की समीक्षा। अब देखना है कि हिंदी-गद्य के क्रमिक विकास में उनकी शैली का क्या स्थान है।