शब्दों में उन्हें एक पत्र लिखा था। वह 'ब्राह्मण' में निकला
था। उसको प्रकाशित करते समय उन्होंने अपने विषय में हृदय
के कुछ उद्गार यों निकाले थे:--
"•••कुछ न सही, पर कानपुर में कुछ एक बातें केवल हमी पर परमेश्वर ने निर्भर की हैं... यदि लोग हमको भूल भी जायँगे तो यहाँ की धरती अवश्य कहेगी कि हममें कभी कोई खास हमारा था।
••••••बाज़े बाज़े लोग हमें श्री हरिश्चंद्र का स्मारक सम- झते हैं। बाज़ों का ख्याल है कि उनके बाद उनका सा रंग ढंग कुछ इसी में है। हमको स्वयं इस बात का घमंड है कि जिस मदिरा का पूर्ण कुंभ उनके अधिकार में था उसी का एक प्याला हमें भी दिया गया है, और उसी के प्रभाव से बहुतेरे हमारे दर्शन की, देवताओं के दर्शन की भांति, इच्छा करते हैं••••••।”
वाचक इससे स्वयं ही समझ सकते हैं।
पंडित प्रतापनारायण और ब्राह्मण
जिस प्रकार पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक जीवन से 'सरस्वती' को अलग नहीं कर सकते, ठीक उसी प्रकार प्रताप मिश्र' और 'ब्राह्मण' को भी एक दूसरे से विभक्त नहीं कर सकते।
'ब्राह्मण' मार्च सन् १८८३ से निकलने लगा था और जुलाई
सन् १८८९ तक रो-पीट कर चला। इस बीच में सदैव ग्राहकों
की नादिहंदी का उलाहना देते ही बीता। कभी तो एक रुपया