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जब कभी म्युनिसिपैलिटी अथवा सरकार कोई नया टैक्स लगाती या ऐसा कोई काम करती जिससे कि सारी पबलिक को किसी प्रकार की असुविधा होने की संभावना होती तो चट मिश्र जी उनकी तरफ से प्रतिशोध करने उठ खड़े होते और अपने 'ब्राह्मण' नामक पत्र में व्यंग से भरे लेखों की झड़ी लगा देते।

'इन्कमटैक्स' पर उनका एक लेख है। वह पढ़ने लायक है।

उन दिनों गोशाला-आंदोलन कानपुर में चल रहा था। अक्सर गोशाला खोलने के लिए सभाएं होती थीं और चंदा इकट्ठा होता था। पर, अधिकतर लोगों की उदासीनता से या प्रबंधकों के कुप्रबंध के कारण शीघ्र ही गोशाले टंढे हो जाते थे। इस विषय में प्रतापनारायण जी ने कई जगह कानपुर पबलिक को खरी-खोटी बातें जी भर सुनाई हैं। नमूना लीजिए:-

"पंडित बहुत बसैं कम्पू मां, जिनका चारि खूट लग नांव ।

बहुतक बसैं रुपैयौ वाले, जिन घर बास लक्षमी क्यार ॥
नाम न लैहौं मैं बाम्हन को, अस ना होय जीभ रहि जाय ।
कौन आसरा तिन ते करिये, जिउ की करें रच्छिया हाय ।
नामबरी केरे लालच माँ, चाहै रहै चहै घर जाय ॥
आतसबाजी पूँकि बुझावै, औ फुलवारी देय लुटाय ।

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