है और उन्हीं के प्रभाव से विश्व की जीवन-धारा प्रवाहित
रहती है। रूखे दिमागी ज्ञान का उपार्जन करने में अपनी सारी
शक्तियाँ केंद्रित करनेवालों की अंत में उपेक्षा की जाती है,
क्योंकि ऐसे नीरस ज्ञान से मानव-हृदय को कभी सच्ची शांति
नहीं मिलती।
'सोने का डंडा और पौंड़ा' शीर्षक लेख में प्रतापनारायण जी ने इस तथ्य का मार्मिक विवेचन किया है। 'सोने का डंडा' शुष्क ज्ञान का द्योतक है जो देखने में बड़ा मनोमोहक होता है, किंतु जिससे किसी की आत्मा को वास्तविक शांति नहीं मिल सकती। 'पौंड़े' से अभिप्राय है हार्दिक रसीलेपन से।*
महाकवि सूरदास ने अपने 'भ्रमरगीत' में उद्धव और गोपियों में जो ज्ञान और भक्ति विषयक बातचीत कराई है उसका भी सारांश यही है।
प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में किसी न किसी समय
किसी न किसी रूप में ऐसी मानसिक अवस्था का अवश्य
अनुभव करता है जिसमें उसे ज्ञान और भक्ति के प्रतिद्वंद्वी भावों
का पारस्परिक संघर्ष होता प्रतीत होता है। जिनमें अधिक
मनोबल होता है वे शीघ्र इस द्वंद्व-युद्ध का निबटारा कर लेते
हैं। पर निर्णय हमेशा भक्ति अथवा हादिक प्रवृत्तियों के पक्ष
में होता है। संत तथा रिंद अन्य साधारण लोगों की अपेक्षा
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*इस संबंध में Tennyson की प्रसिद्ध कविता 'Palace of art' पढ़ने लायक है।