पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२२९

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(२१८)

मुख में चारि वेद की बातैं, मन पर धन पर तिय की घातैं।
धनि बकुला भक्तन की करनी,'हाथ सुमिरनी बगल कतरनी'।।
छोड़ि नागरी सुगुन आगरी उर्दू के रँग राते।
देसी वस्तु विहाय विदेसिन सो सर्वस्व ठगाते ।।
मूरख हिन्दू कस न लहैं दुखजिनकर यह ढंग दीठा।
'घर की खांड़ खुरखुरी लागै चोरी का गुड़ मीठा'।।
तन मन सों उद्योग न करहीं, बाबू बनिबे के हित मरहीं।
परदेसिन सेवत अनुरागे,'सब फल खाय धतूरन लागे'।।
राखहु सदा सरल बरताव, पै समझहु सब टेढ़हु भाव ।
नतरु कुटिल जन निज गति छाटैं,'सूधे का मुह कुत्ता चाटैं।।
समय को अपने जो सतसंग में बिताता है।
हरेक बात में वह दक्ष हो ही जाता है।।
किसी को क्या कोई शिक्षा सदैव देता है।
'चौतरा आपही कुतवाली सिखा लेता है'।।
('लोकोक्ति-शतक'से)
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हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ।
चहहु जो सांचहु निज कल्याण । तौ सब मिलि भारत सन्तान ।।
जपहु निरन्तर एक ज़बान । हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ॥१॥
रीझै अथवा खिझै जहान । मान होय चाहै अपमान ।
पै न तजौ रटिबे की बान । हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ॥२॥