पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२२२

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(११)
करेंकरें यजन याजन उनही को जिनते मिलै नाम औ दाम ।।
देहिं धर्म धन लाज सबै बिधि लेहिं देश को शाप मुदाम ।
अहो कौन कृत देखि हमारो है हौ कृतु मुनि तृप्यन्ताम ।।
(१२)
तुम सागर में करो तपस्या बहु वर्षन सुमिरे सियराम ।
हम आंसुन में डूबि 'कुकृति बस अंतस ताप तपै बसु जाम ।।
तव मुख अग्नि कढ़ी हमरेहु मुख पर डर जारन कदै कलाम ।
ऐसेहु सह धर्मिन सो ह्वौ है कस न प्रचेता तृप्यन्ताम ॥
(१३)
देवहुती कहं सांख्य योग तुम उपदेश्यो सद गति को धाम ।
हम मातहिं इंग्लिश पढ़ि सिखवै वेद गप्प मिथ्या हैं राम ।।
केवल जाति वर्ग के डर सों जल उलचैं लै लै तब नाम ।
मन को भावन पूछि सकौ तौ कपिल देव जू तृप्यन्ताम ॥
(१४)
शिरते पग लगि कारे कपरे शुद्ध आसुरी भेष तमाम ।
भाषा औरौ मधुर आसुरी किट पिट गिट पिट ओ यू ड्याम ।।
भोजन अधिक आसुरी जिनमें बूझि न परै हलाल हराम ।
'ऐसे असुरनती हिन्दुन सों होहु न आसुरी तृप्यन्ताम ।।
(१५)
मृत भाषा समुझें संस्कृत कहं वेदन गनैं असभ्य कलाम ।
फिर का जानै किमि मानैं हम विधि निषेध कलि कुतसित काम ।।
निजता निज भाषा निज धर्महि देहिं तिलोदक आठौ जाम ।