पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२११

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होनी जु होय सुहोय भले खुल खेलिये और उपाव न पैऐ।
यों मन होत रहै सजनी मन मोहनै लैकै कहूं कढ़ि जैऐ॥५॥
मनहरण।
कीन्हों कहा तरुन जो लूटि लीन्हों नाहक में
दीन्हों बन कोकिलन सहज पुकारे में।
आगि सी लगाइ दई किंसुक गुलाबन में
भौरन को डार्यो वाही बरत अंगारे में॥
परतापनारायन हू को ना करत डर
काम को जगाय दियो हृदय हमारे में।
सबहि सताय हाय लैकै ऋतुराज पापी
जैहै यमराजपुर आठ अठवारे में॥६॥
शेर।
जो हंसों देखा उसी का साफ़ नक़शा बन गया।
दिल है अपना या कोई आला है फोटोग्राफ का॥७॥
रूठो न बरहमन से वगरना कहेंगे सब।
बुत कैसे खुदा हैं कि पयम्बर नहीं रखते॥८॥
की अर्ज़ दिल की दिल को खबर चाहिए तो वह।
बोले मकाने दिल न हुआ तार घर हुआ॥९॥
बरहमन ही को सताता है हमेशा हर तरह।
वह शहे खूवां चलन सीखा है आलमगीर के॥१०॥
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