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विद्याहीनता और वाचालता का यों चित्र खींचते हैं:-

"स्वामी दयानंद मनै बिसूरैं हम सब करिबे देश-सुधार।

मूड़ मुड़ाओ उन भारत हित विद्या पढ़ी छोड़ि घर-बार॥
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कहुँ हरवाहन संध्या सीखी कहुँ कहुँ बैठि गई टकसार।
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हाल समाजिन को का कहिये बातन छप्पर देय उड़ाय॥
पै दुइ चारि जनेन को तजि कै, कुछ करतूति न देखी जाय‌।
सगे समाजिन ते नित ऐंठें, राँधि परोसिन को धरि खायें।
मुख ते बेद बेद गोहरावै, लच्छन सबै सुलच्छन आएँ।
आँकु न जानैं सँसकीरति को, ले न गायत्री को नाउँ।
तिनका आरज कैसे कहिये, मैं तो हिंदू कहत लजाउँ।"
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(प्रतापनारायण के धार्मिक सिद्धांत तथा)
विचार विशदता

अभी मिश्र जी की जिस परिहास-प्रियता तथा मनमौजीपन का उल्लेख किया गया है उसी से उनकी मानसिक प्रवृत्ति का पता लग सकता है। क्योंकि जिस पुरुष के चरित्र में ये दोनों गुण ओत-प्रोत रहते हैं उसकी मानसिक दृष्टि बड़ी विशद होती है। परिहासप्रियता उसे सदैव सांसारिक व्यापारों के वास्तविक महत्त्व का ज्ञान कराती रहती है। जब उसकी दृष्टि किसी पुरुष