"करुणानिधि-पद-विमुख देव-देवी बहु मानत।
कन्या अरु कामिनि-सराप लहि पाप न जानत॥
केवल दायज लेत और उद्योग न भावत।
करि वकरा-भच्छन निज पेटहिं कबर बनावत॥
का खा गा घा हू बिन पढ़े तिरवेदी पदवी धरन।
कलह-प्रिय जयति कनौजिया, भारत कहँ गारत करन॥"
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"हमारे रौरे जी की अकिल पर ऐसे पाथर पड़े हैं कि दुनिया भर की चाहै लाते खाय आवै पर अपने को अपना समझे तो शायद पाप हो। धाकर तो धाकर ही हैं। अच्छे 'झकझकौआ' पट्कुल का भी पक्ष करना नहीं सीखे।"
'फक्कड़ और भंगड़' शीर्षक एक कथोपकथन 'ब्राह्मण' के किसी अंक में निकला था। उसमें उन्होंने अपने समीपी संबंधी पंडित प्रयागनारायण जी तिवारी को जिनका बनवाया हुआ प्रसिद्ध मंदिर कानपुर में है, बड़ी खरी-खोटी बातें सुनाई हैं।
इसके सिवाय आर्यसमाज के अनुयायियों पर तथा उसके कुछ सिद्धांतों पर भी उन्होंने चुभती हुई फबतियाँ कसी हैं, यद्यपि यथार्थ में वे स्वामी दयानंद और उनके चलाये हुए मत के बड़े प्रशंसक थे।
'कानपुर-माहात्म्यकानपुर-माहात्म्य' नाम की छोटी सी रचना में हिंदुओं की पारस्परिक फूट तथा कानपुर के निवासियों के 'कँचढिल्लापन' का ज़िकर करते समय वे अधिकांश आर्यसमाज के परिपोषकों की