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वास्तव में प्रतापनारायण जी के चरित्र में कई अनुपम गुण थे जिनके कारण उनके स्नेहियों तथा प्रशंसकों का समुदाय उनके जीवनकाल में काफी बड़ा था और अब भी है।

अभी कहा जा चुका है कि वे बड़े लहरी आदमी थे। किसी प्रकार के धार्मिक अथवा सामाजिक बंधन से बँधना उन्हें असह्य था, क्योंकि ऐसी दशा में उन्हें अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रप्रियता तथा अलबेलेपन को पूर्णरूप से प्रस्फुटित करने में बाधा पड़ती थी। यही कारण है कि बड़ी से बड़ी चिर-समाद्रित संस्थाओं पर तथा घनिष्ट से घनिष्ट परिचित सज्जनों पर कभी कभी वे बिलकुल निर्भीक हो कर तीव्रकटाक्ष करने में हिचकते न थे। स्वयं पाखंड तथा कोरी दुनियादारी के घोर विरोधी होकर भला वे व्यर्थ के ढकोसलों का कैसे समर्थन कर सकते थे।

उन्होंने अनेक स्थलों पर स्वयं अपने को प्रेमधर्म का अनु-- यायी बताया है और 'प्रेम एव परो धर्मः' के मंत्र का प्रचार किया है। प्रेमी लोग समदर्शी होते हैं। इसी लिए प्रतापनारायण जी बड़े निर्भीक तथा उदारहृदय थे।

इसकी पुष्टि में कि वे बड़े उदारहृदय और स्पष्टवादी थे कई उदाहरण दिये जाते हैं।

वे खुद ऊँचे घर के कान्यकुब्ज थे और कुलाभिमान भी रखते थे। पर 'ब्राह्मण' के एक अंक में कनौजियों की निरक्षरता तथा उनके जातीय ताटस्थ्य का उन्होंने अच्छा चुटीला मज़ाक किया है। 'ककाराष्टक' नामक कविता में वे लिखते हैं:-