पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१६९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

( १५७ )

स्वतन्त्र ।

हमारे बाबू साहब ने बरसों स्कूल की खाक छानी है, बीसियों मास्टरों का दिमाग चाट डाला है, विलायतभर के ग्रन्थ चरे बैठे हैं; पर आज तक हिस्ट्री, जियोग्रफी आदि रटाने में विद्या-विभाग के अधिकारीगण जितना समय नष्ट कराते हैं, उसका शतांश भी स्वास्थ्य-रक्षा और सदाचार-शिक्षा में लगाया जाता हो तो बतलाइए ! यही कारण है कि जितने बी० ए०, एम० ए०, देखने में आते हैं उनका शरीर प्रायः ऐसा ही होता है कि आंधी आवै तो उड़ जाय। इसी कारण उनके बड़े २ खयालात या तो देश पर कुछ प्रभाव ही नहीं डालने पाते वा उलटा असर दिखाते हैं। क्योंकि तन और मन का इतना दृढ़ सम्बंध है कि एक बेकाम हो तो दूसरा भी पूरा काम नहीं दे सकता, और यहां देह के निरोग रखनेवाले नियमों पर आरंभ से आज तक कभी ध्यान ही नहीं पहुंचा। फिर काया के निकम्मेपन में क्या सन्देह है, और ऐसी दशा में दिल और दिमाग़ निर्दोष न हों तो आश्चर्य क्या है ! ऊपर से आपको अपने देश के जल-वायु के अनुकूल आहार-विहार आदि नापसंद ठहरे। इससे और भी तन्दुरुस्ती में नेचर का शाप लगा रहता है। इस पर भी जो कोई रोग उभड़ आया तौ चौगुने दाम लगाके, अठगुना समय गंवाके विदेशी ही औषधि का व्यवहार करेंगे, जिसका फल प्रत्यक्ष-रूप से चाहे अच्छा भी