पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१५१

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चन्द्र कृष्णचन्द्रादि को यदि अंगरेजी जमाने वाले ईश्वर न मानें तौ भी यह मानना पड़ेगा कि हमारी अपेक्षा ईश्वर से और उनसे अधिक सम्बन्ध था। फिर हम क्यों न कहें कि यदि ईश्वर का अस्तित्व है तो इसी रंग ढंग का है।

अब आकारों पर ध्यान दीजिये। अधिकतर शिवमूर्तिः लिङ्गाकार होती है जिसमें हाथ, पांव, मुख कुछ नहीं होते। सब मूर्ति पूजक कह देंगे कि 'हमको साक्षात् ईश्वर नहीं मानते न उसकी यथा तथ्य प्रति कृति मानें । केवल ईश्वर की सेवा करने के लिये एक संकेत चिन्ह मानते हैं। यह बात आदि में शैवों ही के घर से निकली है, क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ ही चिन्ह है।

सच भी यही है जो वस्तु वाह्य नेत्रों से नहीं देखी जाती उसकी ठीक ठीक मूर्ति ही क्या ? आनन्द की कैसी मूर्ति ? दुःख की कैसी मूर्ति ? रागिनी की कैसी मूर्ति ? केवल चित्तवृत्ति । केवल उसके गुणों का कुछ द्योतन !! बस ! ठीक शिव मूर्ति यही है। सृष्टि कर्तृत्व, अचिन्त्यत्व अप्रतिमत्व कई एक बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं। ईश्वर यावत् संसार का उत्पादक है। ईश्वर कैसा है, यह बात पूर्ण रूप से कोई नहीं वर्णन कर सकता। अर्थात् उसकी सभी बातें गोल हैं। बस जब सभी बातें गोल हैं तो चिन्ह भी हमने गोलमोल कल्पना कर लिया यदि 'नतस्य प्रतिमास्ति' का ठीक अर्थ यही है कि ईश्वर प्रतिमा नहीं है। ता इसकी ठीक सिद्धि ज्योतिर्लिंग ही से होगी, क्योंकि जिसमें