(१२५)
सिद्ध है। कवियों के लिये बेशक यह बात है कि वे अकेले क्या चाहै तो एक बड़े समूह को लेके नर्क यातना का स्वाद लें, चाहें बड़ी जथा जोड़ के जीवन मुक्ति का आनन्द भोगें, क्योंकि उन्हें अपनी और पराई मनोवृति फेर देने का अधिकार रहता है।
सिद्धान्त यह, कि ऊपर कहे हुये सब लोग अवश्य नर्क ही जायंगे
यह बात विचार शक्ति को कभी माननीय नहीं हो सकती । पर,
हां, हमारे मत वाले भाई अफसोस है कि नर्क के लिये कमर
कसे तैयार हैं। क्यों कि इन महापुरुषों का मुख्य उद्देश्य यह है
कि दुनियां भर के लोग हमारे अथवा हमारे गुरू के चेले
होजायँ । सो तो त्रिकाल में होना नहीं और लोगों का आत्मिक
एवं सामाजिक अनिष्ट वात बात में है। यदि ऐसा होता कि
आर्य समाजियों में आर्य सनातन धर्मियों में पंडित महाराज
मुसल्मानों में मुल्ला जी ईसाइयों में पादरी साहब ही इत्यादि
उपदेश करते तो कोई हानि न थी। बरंच यह लाभ होता कि
प्रत्येक मत के लोग अपने अपने धर्म में दृढ़ हो जाते सो न
करके एक मत का मनुष्य दूसरे संप्रदायियों में जाके शांति भंग
करता है यही बड़ी खराबी है क्योंकि विश्वास हमारे और ईश्वर
के बीच का निज सम्बन्ध है।
एकएक पुरुष ईश्वर की बड़ाई के कारण उसे अपना पिता
मानता है, दूसरा उसके प्रेम के मारे अपना पुत्र कहता है।
इसमें दूसरे के बाप का क्या इजारा है कि पहिले के विश्वास में
खलल डाले। वास्तव में ईश्वर सब से न्यारा एवं सत्र में व्याप्त