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न करो। इसी में आनन्द भी आता है,और हृदय का कपाट भी खुल जाता है। साधारण बुद्धिवाले लोग भगवान् भूतनाथ
श्मसान-विहारी, मुंडमालाधारी को वैराग्य का अधिष्ठाता समझते
हैं, पर वह आठों पहर अपनी प्यारी पर्वतराजनंदिनी को वामांग
ही में धारण किए रहते हैं, और प्रेम-शास्त्र के आचार्य हैं । इसी
प्रकार भगवान् कृष्णचन्द्र को लोग शृङ्गार रस का देवता सम-
झते हैं, पर उनकी निर्लिप्तता गीता में देखनी चाहिए। जिसे
सुनाके उन्होंने अर्जुन का मोह-जाल छुड़ाके वर्तमान कर्तव्य के
लिए ऐसा दृढ़ कर दिया था कि उन्होंने सबकी दया-मया, मोह-
ममता को तिलांजलि देके मारकाट प्रारंभ कर दी थी। इन
बातों से तत्व-ग्राहिणी समझ भली भांति समझ सकती है कि
भगवान प्रेमदेव की अनंत महिमा है। वहां अनुराग-विराग,
सुख-दुःख, मुक्ति-साधन सब एक ही हैं। इसी से सच्चे समझ-
दार संसार में रह कर सब कुछ देखते सुनते, करते धरते हुए भी
संसारी नहीं होते । केवल अपनी मर्यादा में बने रहते हैं, और
अपनी मर्यादा वही है जिसे सनातन से समस्त पूर्व-पुरुष रक्षित
रखते आए हैं, और उनके सुपुत्र सदा मानते रहेंगे। काल, कर्म,
ईश्वर अनुकूल हो वा प्रतिकूल, सारा संसार स्तुति करे वा
निंदा, वाह्य दृष्टि से लाभ देख पड़े वा हानि, पर वीर पुरुष वही
है जो कभी कहीं किसी दशा में अपनेपन से स्वप्न में भी विमुख
न हो। इस मूलमंत्र को भूल के भी न भूले कि जो हमारा है
वही हमारा है। उसी से हमारी शोभा है, और उसी में हमारा