उपजता भी है वह कटके खलियान में नहीं आने पाता, ऊपर ही ऊपर लद जाता है ! रुजगार-व्यौहार में कहीं कुछ देखी नहीं पड़ता। जिन बजारों में, अभी दस वर्ष भी नहीं हुए, कंचन
बरसता था वहां अब दूकानें भांय २ होती हैं ! देशी कारीगरी
को देश ही वाले नहीं पूछते । विशेषतः जो छाती ठोंक २ ताली
वजवा २ काग़जों के तखते रंग २ कर देशहित के गीत गाते
फिरते हैं वह और भी देशी वस्तु का व्यवहार करना अपनी शान
से बईद समझते हैं। नौकरी वी० ए०, एम० ए०, पास करनेवालों
को भी उचित रूप में मुशकिल से मिलती है। ऐसी दशा में
हमें होली सूझती है कि दिवाली !
यह ठीक है। पर यह भी तो सोचो कि हम तुम वंशज किनके हैं ? उन्हीं के न, जो किसी समय बसंत- पंचमी ही सेः-
"आई माघ की पांचैं बूढी डोकरियां
का उदाहरण बन जाते थे, पर जब इतनी सामर्थ्य न रही तब शिवरात्रि से होलिकोत्सव का आरंभ करने लगे। जब इसका
भी निर्वाह कठिन हुआ तब फागुन सुदी अष्टमी से-
शठ पण्डित, वेश्या बधू सबै भए इकसार”
का नमूना दिखलाने लगे। पर उन्हीं आनंदमय पुरुषों के वंश
में होकर तुम ऐसे मुहर्रमी बने जाते हो कि आज तिवहार के
दिन भी आनन्द-बदन से होली का शब्द तक उच्चारण नहीं