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के घर में हुआ था। उनके पिता जी उन्नाव जिले के बैजेगाँव
के रहने वाले थे। वहाँ से वे कानपुर में आ बसे थे। कहते हैं
कि वे अच्छे ज्यौतिषी थे। इसी वृत्ति से उन्होंने काफ़ी यश
तथा धन कमाया था। कानपुर के रामगंज नाम के मुहल्ले में
जिस जगह संकठाप्रसाद जी बैठा करते थे वह मुझे दिखाई
गई थी। उनका मकान नौघड़ा में अबतक मौजूद है। आसपास
के कई मकान उन्हीं के अधिकार में थे। लगभग ७ वर्ष की बात
है मैं उनके मकान को देखने तथा प्रतापनारायण जी की धर्म-
पत्नी के दर्शन करने को गया था। उनके चरणस्पर्श करने का
सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ था।
बालक प्रतापनारायण बड़ा चपल तथा मस्त-तबियत था। पिताजी ने उन्हें अपनी ही वृत्ति में डालना चाहा, पर उनकी तबियत जन्म-पत्र बनाने तथा ग्रह-नक्षत्र की गणना करने में कब लगने को थी! अतएव अंग्रेजी पढ़ने के लिए वे स्कूल में भरती कराये गये। वहाँ भी जी न लगा। तब वे उस मिशन स्कूल में भरती हुए जो किसी समय नयेगंज के पास था, पर जो अब टूट गया है। वहाँ भी बहुत दिन तक वे नहीं टिके और आखिरकार सन् १८७५ के आस-पास उन्होंने पढ़ना छोड़ ही दिया।
असल में प्रतापनारायण उन पुरुषों में से थे जिनके विद्या-
ध्ययन के साधन साधारण लोगों के साधनों से बिलकुल ही
भिन्न होते हैं। और लोग स्कूलों और कालेजों में कठिन परिश्रम