पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१०३

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हैं तो भी पांच वर्ष में अनुभव कर चुके हैं कि देने वाले बिना माँगे ही भेज देते हैं और नादिहंद सहस्र बार मांगने से, सैकड़ों चिट्ठी भेजने पर भी दोनों कान एवं दोनों आँख बन्द ही किए रहते हैं। इससे हमने इस दुष्ट (दो) के अक्षर का बोलना ही व्यर्थ समझ लिया है। हाँ, जो दयावान हमारे इस प्रण के पूर्ण करने में सहायता देते हैं अर्थात् दो दो कहने का अवसर नहीं देते उनको हम भी धन्यवाद देते हैं । पर इस लेख का. तात्पर्य दो शब्द का दुष्ट भाव दिखलाना और यथासाध्य छोड़ देने का अनुरोध करना मात्र है, न कि कुछ मांगना- जांचना। यदि तनिक इस ओर ध्यान दीजिये कि-दो-क्या है तो अवश्य जान जाइयेगा कि इसको हम मन बचन कर्म से त्याग देना ही ठीक है। क्योंकि यह हई ऐसा कि जिससे कहो उसी को बुरा लगे। कैसा ही गहिरा मित्र हो, पर आवश्यकता से पीड़ित होके उससे याचना कर बैठो अर्थात् कहो कि कुछ (धन अथवा अन्य कोई पदार्थ) दो तो उसका मन बिगड़ जायगा। यदि संकोची होगा तो दे देगा, किन्तु हानि सहके. अथवा कुछ दिन पीछे मित्रता का सम्बन्ध तोड़ देने का विचार करके। इसी से अरब के बुद्धिमानों ने कहा है-'अलक़ज़ मिकरा जल मुहब्बत'-जो कपटी वा लोभी वा दुकानदार होगा तो एक २ दो दो लेने के इरादे पर देगा सही, पर यह समझ लेगा कि इनके पास इतनी भी विभूति नहीं है अथवा बड़े अपव्ययी हैं। यदि ऋण की रीति पर न मांग के योही