पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/९८

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मुनीनां च मतिभ्रमः __ हमारे मित्रवर श्री राधाचरण गोस्वामी को योग्यता सहृदयता और विद्वता किसी से छिपी नहीं है । यह हम बिना कोई आपत्ति स्वीकार कर लेंगे कि गोस्वामी लोगों का ठौर व आजकल उन्ही अथवा उनके से शायद दो ही चार पुरुष रत्नों पर निर्भर है । पर जब हम देखते हैं कि हमारा एक ऐसा सुयोग्य सहकारी कभी २ हंसी में आकर बाज जगह ऐसी बातें लिख बैठता है जो आक्षेपनोय एवं हास्यास्पद होती हैं, तो हम क्या करें ? इधर मित्रता तो कहती है,बोलो मत "बिगड़ने से बनता है उनका बनाव"। इधर विचार कहता है, नहीं रोक दो गर गलत चले कोई" । अन्त में हमें यही कहना पड़ता है "मुनीनांच मति भ्रमः"। आदमी मूलता ही है, पर क्या कीजिये जो जान बूझकर मूलता हो । उसको तो समझाये बिना जी नहीं मानता। हमारा बिचार कभी किसी से झगड़ा लेने का नहीं रहता। पर सच्ची बात मे क्यों न कहें कि "सबका ज्ञान दें आप......" हि हि हि क्यों कह । श्रीगोविंदनारायण जी कृत शिक्षा सोपान को समालोचना में श्री मुख की आज्ञा है कि "ग्रंथकर्ता श्रेष मालूम होते हैं । अर्धचंद्र पर बड़ा जोर दिया है ।" मला पठन पाठन की पुस्तकों में अर्धचंद्र क्या न रहना चाहिए ? फिर गोस्वामीजी को कोन कर्णपिशाची सिद्ध है जो ग्रंथकार की मत बदल गई ? आप वैष्णव हैं तो क्या अर्धचंद्र उड़ा देंगे? ऐसा हंसोड़पन किस काम का। और सुनो, पुस्तकों की समालोचना में कुछ न कुछ दोष अवश्य ढूंढ़ लेने की आपको लत है, पर अपनी बातों में आगे पीछे की सुध नहीं रखते । अगस्त के भारतेंदु में आपने एक पुस्तिका दी है । उसका नाम प्रेम बगीची रक्खा है। क्या नाम रखने को कोई संस्कृत शब्द न जुड़ता था ? प्रेमबाटिका बुरा था जो एक अरबी का शब्द सो भी महा २ अशुद्ध रखते हैं ? गोस्वामीजी को भली भांति ज्ञात होगा कि वह शब्द बाग है जिसको बागीचा कह सकते हैं। बागीचा भी अशुद्ध हैं । पर खैर शहर के अनपढ़ लोग बोलते हैं । परंतु बगीचा और बगैचा तो सिवाय अक्षर शत्रुओं के कोई बोलता ही नहीं । तिसमें भी बगीची ! ह ह ह ! खतरानियों की बोली। एक मात्रा अर्धचंद्र लिखने वालों को तो आपने शैव समझ लिया पर इस अशुद्ध और जनाने शब्द को पोथी के नाम में लाते समय यह ध्यान न रहा कि हमें लोग क्या समझेंगे । यदि किसी गीत में यह शब्द आ जाता तो हम समझ लेते कि मैत्री के निवाहने क्या करें। पर नाम में एक उस भाषा का शब्द जिसके हम और वह दोनों शत्रु हैं, लाना, सो भी अशुद्ध ! भरा यह लीला देख के और आपरूप की योग्यता सोच के कौन न कहेगा मुनीनां च मतिभ्रमः । हम आशा करते हैं कि हमारे मित्र आगे से ऐसी २ बातों पर ध्यान रक्खा करें; नहीं तो यह कोई कह न सकेगा कि गोसाइजी समझते नही, पर हो, हसी के पीछे बनी बिगडी का विचार नहीं रहता, यह कहते हम भी नहीं रुक सकते । विशेषुकिमधिकं । खं. ३, सं०७ (१५ सितंबर ह० सं० १)