पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/८३

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वर्षारंभ मंगलाचरणम् ] चलत गिर पड़ी दांत बत्तीसी टूट' जिसमें तकाजा करने पर खीस काढ़ के 'सुध नहीं रहती' न कहो। नहीं २ आज वर्षारम्भ की खुशी में हम और भी देंगे-बढ़ती रहै हमारे प्यारे 'भारत जीवन' को जिन्होंने प्रण किया है कि १५ अपरैल तक सब हिंदी पत्रों के सारे नादिहंद ग्राहकों को गधे की सवारी, नील का टीका और बूक का अभिषेक यह तीनों दिये जायंगे जिसमें उन्हें तोनों तिरलोक दिखाई देंगे । अब भी न समझ जायं तो सचमुच तीन अक्षर ( धिक्कार ) तो उनके भाग ही में हैं हम क्या करें। पाठक शब्द में तीसरा अक्षर 'क' है । उस्का तात्पर्य है कर्म करने वाला, अर्थात रुपया देके पत्र को पढ़ ही नहीं डालते कुछ उस्के अनुसार करते भी हैं । कुछ रुपया नागरी प्रचार में, कुछ काल परोपदेश में कुछ श्रम परस्पर प्रेम प्रबद्धन में व्यय करते हैं । उनके लिए हम क्या परमेश्वर भी धन्यवाद और माशीरवाद करेगा। संसार में त्रिवर्ग अर्थात् धर्मार्थ काम अथच अन्त में नित्यानद उन्हीं के हेतु है । सच तो यह है कि कुछ करने ही से कुछ होता है। कोरी बातों में तीन काने के अतिरिक्त क्या धरा है ? वही ढेकुली के तीन पात । अस्तु तो हम भी बातें बनाना छोड़ के अपना कर्तव्य पालन करें । क्यों प्यारे पाठक, करै न ? ह ह ह ओ३म् तद सत् नमात्रे देव्यं । धोकलिराजउवाच । ब्राह्मणा नाम्महा बांभन् ( बांइति भनति ) शठानांचमहाशठः । देविनांच महा देवी माननीया सदा बुधः ॥ १ ॥ देबी २ देहिबी बिदेहिबो बीत मंत्रक मद्भक्तानांमुखे नित्यं रहितब्यं प्रयत्नतः ॥ २ ॥ पूजयंति महाशक्ति बुढ़वाः पोप बंचिताः । तस्य वै गुप्त तात्पर्पमहं मन्येन दीगरः ( दूसरा ) ॥ ३ ।। काले हिंदुन की प्यारी काली बोतल बासिनी। मद्योपनाम धात्री तां महाकाली मुपास्महे ॥ ४ ॥ तुच्छानां तुच्छ चित्तानां राजा बाबू बनाइनी। खुशामदेति विख्यातां महालक्ष्मी भजाम्यहं ॥ ५ ॥ कुछ का कुछ करणे देयं जालिनी ( जाल ) संयुक्तः कापथ प्रियां । बेउर्दू इति मशहूरां महाबाणी स्मरामहे ॥ ६ ॥ महा देव्या शठकं दिव्यंयः पठेच्छृणुयादपि । कर्मणी धर्मतः शर्मान् मुक्तमाप्नोति वैध्रवम् ॥ ७ ॥ सर्वोन्नतिकरं पुण्यं सर्व सिद्धि विधायकं । गोपनीयमिदंस्तोत्रं सिब्लाइजड महात्मभिः ॥ ८ ॥ इति श्री कलिकाल तंत्रे उन्नीसवी सद्दी कलिराज संवादे त्रिदेव्याष्टकं समाप्तम् । खैर यह तो होली का उत्तर था, सड़े बुड्डों का ब्यौहार था। अब सच्चा २ मंगल पाठ हो। नमो भगत बत्सल सुखद सबहि भांति भजनीय । जगत प्राणपति अति सुभग परमईश रमणीय ॥१॥ अकथनीय आनंदमय सहृदय जन के प्रान । शुभ शोभानिधि परम प्रिय नमो प्रेम भगवान ॥ २ ॥ परम पूज्य प्रेमीन के सुहृद सभा सुखकंद । जग दुखहर शिवतीसमणि मनो देव हरिचंद ॥ ३ ॥ उरपुर निज परकाश करि संसय सकल नशाव । हे प्रभु आरज बंधु कहं प्रेम पंथ दरशाव ॥ ४ ॥ सिंखहि नागरी नागरी नागर बनहिं सुलोय । ब्राह्मण की आशीष ते घर २ मंगल होय ॥ ५ ॥ ओ३म् धर्म । धर्म । धर्म । प्रेम । प्रेम । प्रेम ॥ शांति । शांति । शांति ॥ खं० ३, सं० १ ( १५ मार्च १० सं०१)