पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/७५

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कलिकोष ] जनेऊ-ताली बांधने और कसम खाने के लिये साबुन से धोया हुआ डोरा। तिलक-दुष्कर्म छिपाने की ढाल । आचार-शुद्ध शब्द अचार है । नीबू आम कटहल इत्यादि की खटाई । विचार-जिहि बिधि मिलु पर धन पर नारी । करिय सो जतन विवेक विचारी । इति बर्णाश्रमबर्गः ॥ थोड़ा २ पढ़ावैगे, शेष फिर किसी प्रतिपदा को सीखना ॥ साधु-गांजा चरस अफीम इत्यादि का साधन करने वाला। सन्त-शुद्ध शब्द संठ (निरलज ) है । फारसी में टवर्ग नहीं होता इससे मुसलमान लोग बिगाड़ के बोलने लगे, जैसे अरब में एक बड़े देवता का नाम लात था बुह शुद्ध नाम लाठ ( शिवलिंग ) होगा। महन्त-मेहेनत का अपभ्रंश मेहेंत, उसका भी अपभ्रश महंत, न करने वाला, 'हरामखोर'। अथवा बंगाली ढंग से 'मोहंत' ( काम क्रोध लोभ मोह ) अर्थात् जिसके अंत में मोह है ऐसे बर्ग चतुष्टय का पूरण पाण । महात्मा-महा माने बड़ा, तमा माने लालच ( फारसी में ) वाला । बैरागी-वेति निश्चयेन रागी अथवा बैर की आगी ( आग ) का बर्द्धक । बिरक्त-विशेष रक्त मांस जिस्के सबसे हो अर्थात् रिण को फिकिर न धन को चोट, यहु धमधूसर काहे मोट । जोगी-जो गिरस्त वर घालत फिरै । जो गिरस्त के कार्ट कान । जगम-फारसी शब्द है, मैं लड़ाई का रूप हूँ अर्थ हुवा। जती-जै अर्थात् जितना ती (स्त्री) हो, इनकार नहीं। भगतजी-मुंहमा राम बगल मो ईट, भगतजी काहेन भयो"इत्यादि प्रसिद्ध ही है। चाही अधियाय के हबशी का नाम काफूर न्याय से समझ जाव । गोसांई-गो गऊ अथवा इंद्रिय तिनका साई ( स्वामी )। पुजारी-पूजा का अरि। वैशनव-नबीन बैश ( अवस्था ) का खोजी । शैव-( सबै ) एक आँख दबाके घोंचकोनिया के कहने से मर्थ खुल जायगा । सैब-अर्थात् वही। कचहरी-कच माने बाल, हरी माने हरण करने वाली । अर्थात् मुंडन ( उल्टे छुरे से मुंडने वाली )-जहाँ गये मुंड़ाये सिद्धि । दर्बार-दबं द्रव्य का अपभ्रंश और अरि अर्थात् शत्रु, जैसे सुरारि मुरारि इत्यादि । भाषा में अंत वाली ह्रस्व इ की मात्रा बहुधा लोप हो जाती है। अदालत-अदा अर्थात् छवि, उसको लत पोशाकें चमका चमका के जो बैठने वालों का स्थान । अथवा होगा तो वही जो भाग में है पर अपने दौड़ने-धूपने की लत अदा कर लो। अथवा अदा बना के जाओ लातें खाके मामो इत्यादि ।